Tuesday 27 May 2014

स्त्री मुक्ति के आदर्श: आखिर जरूरत किसकी है...?


स्त्री मुक्ति के आदर्श: आखिर जरूरत किसकी है...?
रजनीश कुमार अम्बेडकर
शोध छात्र, बाबासाहब डॉ. अम्बेडकर दलित एवं आदिवासी अध्ययन केंद्र
महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा (महाराष्ट्र)-440001
email: rajneesh228@gmail.com Mob.09423518660/08421966265

महिला शिक्षा की बिगुल बजाने वाली क्रांतिज्योति सावित्रीबाई फूले को आज भी हमारा समाज जरा भी इनके योगदान से वाकिफ नहीं हैं। आखिर क्यों.....? यह एक सामाजिक गलती है या फिर समाज को दिशा-निर्देश देने वाले उस तपके की जो बौद्धिक वर्ग कहलाता है, उस तथाकथित बौद्धिक वर्ग में कौन हैं....? लेखक, पत्रकार व मीडिया के मालिक कौन हैं....? जो यह बताए कि क्रांतिज्योति सावित्रीबाई फूले नाम किसका है। वही दूसरी ओर देखें तो महाराष्ट्र को छोड़कर देश भर के अन्य राज्यों के स्कूलों, कॉलेजों व विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में सावित्रीबाई फूले को आखिर शामिल क्यों नहीं किया जाता। पाठ्यक्रम निर्धारित करने वाले पदों पर कौन सा वर्ग बैठा है, जो यह तय करें कि किसका योगदान समाज को नई दशा-दिशा देने में रही है। जो समाज सेवा से परे खंडहर व जर्जर पड़ी सामाजिक ढांचा को ही तोड़कर, एक नए समाज का निर्माण करता है जोकि जाति, धर्म, लिंग से परे सम्पूर्ण मानव जाति के कल्याण के लिए हो। जिसमें समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व व न्याय पर आधारित हो। ऐसे समाज में  क्रांतिज्योति सावित्रीबाई फूले के योगदान को छोड़कर, वहीं दूसरी तरफ सभी स्कूलों, कॉलेजों, विश्वविद्यालय से लेकर विभिन्न सरकारी व गैर-सरकारी हर तरह के कार्यक्रमों की शुरूआत सरस्वती देवीकी तस्वीर पर माल्यार्पण व दीप प्रज्वलन के साथ होती है। इस मुद्दें पर खासकर महिलाओं को सोचना होगा क्योंकि आज भारत में महिलाओं ने जो प्रगति की है। उसके पीछे सावित्रीबाई फूले का सर्वाधिक योगदान रहा है। वर्तमान में इनको याद न करके महिलाओं के साथ सशक्तिकरण की बात करना ही बेईमानी होगी।
वैसे मैंने महाराष्ट्र में देखा कि दलित/आदिवासी/ओ.बी.सी. समाज के लोग किसी भी कार्यक्रम की शुरूआत बहुजन नायकों व नायिकाओं जिसमें तथागत गौतम बुद्ध, राष्ट्रमाता सावित्रीबाई फूले, ज्योतिबाराव फूले, शाहू जी महाराज, भारतरत्न बाबासाहब डॉ. बी.आर.अम्बेडकर, बिरसा मुंडा, संत कबीर, पेरियार आदि की तस्वीर पर माल्यार्पण व दीप प्रज्वलन करके करते है। इसी संदर्भ में मुझे उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगाँव में आयोजित राष्ट्रीय सेमिनार 28-29 जनवरी 2014 को, स्त्री अध्ययन विभाग में देखने को मिला। जहाँ पर कार्यक्रम की शुरूआत सावित्रीबाई फूले और महात्मा ज्योतिबा फूले दोनों की तस्वीर पर माल्यार्पण व दीप प्रज्वलन के साथ हुई। इससे एक बात तो समझ में आती है कि अगर समाज में स्त्री-पुरूष के बीच में असमानता को ख़त्म करना है। तो दोनों को एक साथ, एक मंच पर लाना होगा।
इसलिए मेरा मानना है कि भारत देश में जितने भी महिला संगठन है यदि सही मायने में ‘महिला सशक्तिकरण’ या महिला मुक्ति की बात करते हैं। तो इस बात पर अवश्य सोचना चाहिए। आखिर महिलाओं की ऐसी स्थिति क्यों रही....?  आज समाज के विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं ने जो प्रगति की है, वो हमें देखने को मिल रही है। आखिर इसके पीछे किसका हाथ है सरस्वती या सावित्रीबाई फूले का क्योंकि आधुनिक भारत में शिक्षा की शुरुआत क्रांतिज्योति माता सावित्रीबाई फूले और महात्मा ज्योतिबाराव फूले ने 1848 में अछूत-शूद्र समाज के लिए पूना स्थित बुधवार पेठ में प्रथम स्कूल खोलकर क्रांति का बिगुल बजा दिया था। जो स्वयं भी इस देश के मूल निवासी थे। उन्होंने अपने देश के मूलनिवासियों से शिक्षा के बारे में कहा कि
“अगर नारी को शिक्षित कर दिया जाए, तो सारा समाज शिक्षित हो जायेगा”
“इससे पूर्व सन् 1832 ईसवी में ही ब्रिटिश शासकों द्वारा पुणे में ही बुधवार-बाड़ा में एक पाठशाला खोली गई थी।[1]
इसी संदर्भ में महात्मा ज्योतिबाराव फूले ने आगे कहा कि
“ विद्या बिन मति गई, मति बिन नीति गई
नीति बिन गति गई, गति बिन धन गया
धन बिन शूद्र पतित हुए,
इतना घोर अनर्थ केवल अविद्या के कारण ही हुआ ”
इस तरह से देश के मूलनिवासियों की गुलामी का मुख्य कारण अशिक्षा रही है।
शिक्षा के बारे में तथागत गौतम बुद्ध कहते है कि “अत्त दीपो भव अर्थात अपना दीपक स्वयं बनों।”
शिक्षा के बारे में गुरु नानक कहते है कि “जहाँ शिक्षा का प्रकाश होता है वहाँ अंधकार अपने आप भाग जाता है।”
“भारत को शिक्षित करने का मिशन 200 साल पहले, 1813 में, उस वक्त शुरू हुआ। जब ईस्ट इंडिया कंपनी का चार्टर नवीनीकरण के लिए ब्रिटिश संसद के सामने आया। संसद की मांग थी कि कंपनी अपने मुनाफे में से एक लाख रूपये भारत में सार्वजनिक शिक्षा पर खर्च करे। एक पूंजीवादी, व्यापारिक कंपनी से ब्रिटेन की प्रजा को शिक्षित और विकसित करने की मांग क्यों की गई ? सार्वजनिक शिक्षा व्यापारियों के व्यवसाय का हिस्सा नहीं था और न ही यह शासकों के, चाहे वे हिंदू हो या मुस्लिम। यह बाइबल की मांग थी कि कलीसिया (चर्च) जगत को शिक्षित करने की जिम्मेवारी उठाए। शिक्षा के द्वारा चरित्र निर्माण कलीसिया का मिशन बन गया, क्योंकि प्रभु यीशु ने अपने शिष्यों को यह आदेश दिया था कि वे सम्पूर्ण जगत को समस्त सत्य की शिक्षा दें। इसीलिए 1813 के चार्टर में शिक्षा अनुच्छेद को ‘मिशनरी अनुच्छेद’ कहा गया। इसके अंतर्गत ईस्ट इंडिया कंपनी से यह अपेक्षा की गई कि वह लाइसेंसधारी मिशनरी-शिक्षकों को भारत में आने की अनुमति देगी। उस समय तक कंपनी का (कु) शासन था। जिसे अंग्रेज ने कंपनी  को शिक्षा के लिए जिम्मेवार बनाने का अभियान शुरू किया, वह थे चालर्स ग्रांट (1746-1823) ग्रांट 1768 को एक जूनियर एकाउंटेंट की हैसियत से भारत आए।” [2]
भारत के संदर्भ में “ग्रांट की दलील थी कि भारत के बौद्धिक, नैतिक और धार्मिक अंधकार का उपचार शिक्षा की ज्योति है।”[3] 
शिक्षा के बारे बाबासाहब डॉ. बी. आर. अम्बेडकर कहते है कि “शिक्षा वो शेरनी का दूध है जिसे पीकर मनुष्य कहीं भी दहाड़ सकता है।”
धर्म-ग्रंथो में किसका-कितना योगदान
“धार्मिक ग्रंथों से पता चलता है कि जिन्हें हम देवता और ऋषि कहते हैं वे भी बलात्कारी है । ब्राह्मणों को मुख से पैदा करने वाले ब्रह्मा ने अपनी पुत्री सरस्वती से ही बलात्कार किया था।” [4]
                                         
                           
                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                इसी प्रकार “वेदों से लेकर मनुस्मृति तक सारे धर्म शास्त्रों में कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में नारी को पुरूष की सम्पत्ति वर्णित किया गया है। तथाकथित श्रृष्ठी के रचयिता ब्रह्मा का अपनी पुत्री सरस्वती से किया बलात-संग एक चर्चित कथा सर्वविदित है।” [5]
श्रीमद् भागवत के तृतीय स्कंध अध्याय 12 में को अगर देखें-
वाच दुहितंर तन्वी मूर्हंरंतो प्रसभं मन:।
अकामा चक्रमें क्षत: सकाम इतिन श्रुतम् ।।
“अर्थ: मैत्रीय विदुर से कहते हैं कि हे विदुर हम लोगों ने सुना है कि ब्रह्मा ने अपनी काम रहित मनोहर कन्या सरस्वती की कामना कमोंम्त्त होकर की।” [6]
इसी प्रकार से “ब्राह्मणवादी परंपरा के अंतर्गत महिलाओं को ज्ञान के विकास और प्रसार के अधिकार से वंचित रखा गया है।” [7]
अब सवाल यह उठता है क्या हमें ऐसे चरित्र के ब्रह्मा और सरस्वती जिसका शिक्षा के जगत में कोई भी योगदान नहीं हैं.....? क्या उनकी पूजा करनी चाहिए......? आखिर वो शिक्षा की देवी कैसे हो सकती है......?  शिक्षा की देवी होने के बावजूद हिंदू नारी में शिक्षा क्यों नहीं दी....? जबकि इसकी देवी ही नारी है। ऐसे बहुतों ज्वलंत प्रश्न है जिन पर हमें विचार-मंथन करने की जरूरत है। जिससे दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा।
आधुनिक भारत में फूले दंपत्ति का शिक्षा में योगदान
सावित्रीबाई फूले और महात्मा ज्योतिबाराव फूले ने 1848 में अछूत-शूद्र समाज के लिए प्रथम स्कूल खोलने के बाद दूसरा स्कूल 1849 में इसी प्रकार लगातार स्कूल खोलते रहे। “एक दिन पुणे  विश्वविद्यालय में एक अंग्रेज अधिकारी पोलर कैंडी इन स्कूलों को देखने आए। साफ-सुथरे और अनुशासित बच्चों को देख कर वे अति प्रसन्न हुए। उन्होंने फूले दंपत्ति को उनके कार्यों के लिए बधाई दी और कहा कि जो काम बड़ी संस्थाएं भी नहीं कर पाती हैं, उसे आपने कर दिखाया। पोलर कैंडी ने एक जगह लिखा है कि स्कूल की लड़कियों की कुशाग्र बुद्धि और प्रगति देखकर मुझे बहुत संतोष मिला । धीरे-धीरे फूले दंपत्ति ने 18 स्कूल खोले। इनमें ज्योतिबा फूले, सगुणाबाई, सावित्रीबाई फूले समेत अनेक अध्यापक शिक्षक कार्य करते थे।” [8]
जब सावित्रीबाई स्कूल पढ़ाने के लिए जाया करती थी तो ब्राह्मणों और धर्मशास्त्रियों ने बहुत विरोध किया। वे उन पर गोबर एवं पत्थर फेंकते थे। उस समय सावित्रीबाई बड़े प्यार से कहती “मेरे भाइयो, मैं आप की छोटी-छोटी बहनों को पढ़ाने का काम करती हूँ। मुझे प्रोत्साहित करने के लिए ही आप मुझ पर ये फूल फेंक रहे हैं। ये गोबर या पत्थर नहीं हैं, मैं इन्हें फूल मानती हूँ। इससे तो मुझे आपकी बहनों को पढ़ाने का अधिकाधिक प्रोत्साहन मिलता है। ईश्वर आपको सुखी रखे।” ऐसा कहकर सावित्रीबाई घर वापस लौटती थी।
सन् 1852 में ज्योतिबाराव फूले और सावित्रीबाई फूले ने लिखा कि “हर स्कूल से जुड़ा हुआ एक उद्योग विभाग होना चाहिए, जहाँ बच्चे कोई हुनर हासिल कर सकें। फूले दंपत्ति ने बिल्कुल ठीक अंदाजा लगाया था कि गरीबी के कारण बच्चे स्कूल नहीं आते। इसलिए उन्होंने विद्यार्थियों के लिए प्रतीकात्मक वेतन की व्यवस्था की और ऐसा पाठ्यक्रम तैयार किया जो लड़कियों और लड़कों की रूचियों के अनुरूप था और उनकी रचनात्मकता को बढ़ावा देता था। उनके स्कूल की एक छोटी सी लड़की जब अपना इनाम लेने मंच पर पहुंची तो उसने मुख्य अतिथि से कहा-श्रीमान मुझे खिलौने या कोई और उपहार नहीं चाहिए। मुझे हमारे स्कूल के लिए एक लाइब्रेरी चाहिए।” [9]
 सावित्रीबाई फूले ने कहा कि समाज में व्याप्त कुरीतियों का अमूल नाश करना यदि अधर्म है, तो यह अधर्म हमें बार-बार करना होगा। ब्राह्मणों द्वारा स्थापित सभी देवी-देवता काल्पनिक और झूठे हैं। इनकी रचना केवल ब्राह्मणों का पेट भरने और हमें गुलाम बनाने के लिए ही की गई है। जितना जल्दी हो, हमें इन देवी-देवताओं से मुक्ति पाकर, अपनी स्वयं की शक्ति पर भरोसा करना सीखना होगा। सावित्रीबाई फूले के इस महान कार्य को धनंजय कीर लिखते हैं- “ज्योतिबा की पत्नी सावित्रीबाई बाल-हत्या प्रतिबंधक गृह के बच्चों की वात्सल्य भाव से अनवरत सेवा करती थी। उनकी अपनी कोई संतान नहीं थी। फिर भी इन्होंने उनकी अपनी दयाशीलता, उदारता एवं वात्सल्य से परवरिश की। देवीतुल्य वह साध्वी पड़ोसी के बच्चों को भी कभी-कभार खाना खिलने के लिए अपने घर बुलाती थी। बच्चों को भोजन खिलाना उसकी आदत थी। वह बच्चों को जी-जान से चाहती थी। बच्चों के साथ घुल-मिलकर रहने में उन्हें सुख एवं संतोष मिलता था।” [10]
महात्मा फूले और सावित्रीबाई फूले के जीवन कार्य से सुपरिचित ख्याति प्राप्त लेखिका श्रीमती फुलवंताबाई झोडगे अपने एक लेख में लिखती हैं-“इस देश की महिलाओं में सावित्रीबाई ही प्रथम शिक्षित स्त्री, प्रथम अध्यापिका, भारत की सभी जातियों की स्त्रियों की प्रथम नेता और अस्पृश्यता का जमकर विरोध करने वाली प्रथम कार्यकर्ता हैं।”[11]
ज्योतिबा और सावित्रीबाई ने नारी-मुक्ति के लिए रूढ़ियों का खंडन किया, सती प्रथा विधवा मुंडन का विरोध तथा विधवा-विवाह का समर्थन किया और दीन-दलित स्त्रियों के लिए छोटे-छोटे उद्योगों की व्यवस्था की।‘विधवा पुनर्विवाह’ हेतु सावित्रीबाई द्वारा हर पंद्रह दिन में ऐसी विधवाओं की सभा का आयोजन किया जाता था, जिसमें नारी संबंधी समस्याओं पर विचार काके उपाय भी सुझाए जाते थे। वास्तव में यह संगठन ही प्रथम नारी संगठन था। इसीलिए भी सावित्रीबाई फूले नारी-मुक्ति आंदोलन की प्रथम नेता साबित होती हैं। नारी-मुक्ति आंदोलन की जड़े सावित्रीबाई के कार्यों  में ही मिलती है।

इस संदर्भ में जब भारतरत्न बाबासाहब डॉ. बी. आर. अम्बेडकर द्वारा लिखित ‘भारत का संविधान’ (The Constitution of India) भारत की जनता को अम्बेडकर की तरफ से तोफहा था यह संविधान, भारत में 26 जनवरी 1950 से प्रभावी रूप से लागू हुआ । तब से भारत का संविधान लिंग, जाति, रंग, आस्था आदि का भेद मिटा सबको अधिकार देने के कटिबद्ध है। किंतु आजादी के 67 साल गुजर जाने के बाद भी महिला-पुरूष में असमानता जारी है। महिलाओं ने हर क्षेत्र में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया है। वह किसी भी क्षेत्र में पुरुषों से पीछे नहीं रही हैं तथापि महिलाओं पर शोषण एवं अत्याचार जारी है। आज महिलाएं अपने घर में सुरक्षित नहीं है और अपनों के द्वारा ही शोषण, अत्याचार की शिकार हैं।  
बाबासाहब डॉ. अम्बेडकर चाहते थे कि हर बच्चे को एक समान, अनिवार्य और मुफ्त प्रारंभिक शिक्षा मिलनी चाहिए, चाहे वह किसी भी जाति, धर्म या वर्ग का क्यों न हो...? उनका मानना था कि शिक्षा ही वो एकमात्र ताकत है जो सभी बेड़ियों को काट सकती है। उन्हें शिक्षा पर इतना विश्वास था कि उन्होंने अपने सुप्रसिद्ध नारे- शिक्षित बनों..! संगठित रहों..!! संघर्ष करों..!!! में शिक्षा को ही प्रथम स्थान पर रखा।
वास्तव में शिक्षा से बढ़कर कोई देवी-देवता, ईश्वर या भगवान नहीं अगर संसार में कोई अस्तित्व रखता है, तो उसका अनुभव शिक्षा ही कराती है। जो शिक्षित नहीं उनकी तुलना पशुओं से की जाती है। बाबासाहब ने सदियों से वंचित वर्ग के लिए शिक्षा और रोजगार में आरक्षण (प्रतिनिधित्व) दिए जाने की वकालत की थी ताकि भारतीय समाज में अन्य वर्गों की तरह उन्हें भी प्रगति के बराबर मौके मिल सकें। अगर शिक्षा, रोजगार और आवास को मौलिक अधिकार बना दिया जाता तो अम्बेडकर को आरक्षण (प्रतिनिधित्व)  की वकालत करने की शायद जरुरत ही न पड़ती।
“आज हमें सोचना पड़ेगा कि यदि महिलाओं के प्रति नजरिया नहीं बदला गया तो ऐसी ही घटनाएं देखने-सुनने को मिलेगी। इसलिए इस देश का कोई भी संगठन चाहे जागरूकता का कितना भी प्रचार कर रहा हो, परंतु वह पुरूषों की गुलामी से मुक्ति का कोई भी प्रयास नहीं करता। वहां तो पति के नाम पर सिंदूर लगाना ही अनिवार्य बताया जाता है। पति के चरणों में ही नारी का स्वर्ग बताया जाता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि ये सभी संगठन हिंदू धर्म की गिरफ्त में हैं। और हिंदू धर्म में नारी को कभी भी स्वतंत्रता और समानता नहीं मिल सकी। क्योंकि हिंदू धर्म ग्रंथों में नारी को स्वतंत्रता और समानता का अधिकार देने की इजाजत नहीं है।”[12] इसलिए डॉ. बी. आर. अम्बेडकर ने महिलाओं की एक सभा को संबोधित करते हुए कहा था कि “मैं किसी समाज की प्रगति का अनुमान इस बात से लगाता हूँ कि उस समाज की महिलाओं की कितनी प्रगति हुई है।” डॉ. बी. आर. अम्बेडकर का धर्म के बारे में मानना था कि धर्म को समानता, स्वतंत्रता, न्याय और बंधुत्व का आधार बनना चाहिए । जो समाज के विभिन्न घटकों को जोड़े, तोड़े नहीं। केवल इसी मायने में कोई धर्म कल्याणकारी हो सकता है।
“भारत देश में वास्तविक नारीवाद की नींव अम्बेडकर ने ही डाली थी। स्त्री विकास से जुड़े अनेक मामलों के अलावा ‘हिंदू कोड बिल’ में महिला आरक्षण की भी वकालत की गई थी। हिंदू कोड बिल से स्त्रियों को समान सम्पत्ति अधिकार दिए जाने के मामले को दरकिनार किये जाने पर ही उन्होंने तत्कालीन नेहरू कैबिनेट के विधि मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया था। उनका यह कदम दर्शाता है कि वह इस मामले में कितने गंभीर थे। मगर खेद की बात है कि हमारा नारीवाद आन्दोलन विदेशी नारीवादियों से प्रेरणा ग्रहण करता है मगर डॉ. अम्बेडकर की अनदेखी करता है।”[13] आखिर क्यों....? क्या डॉ. अम्बेडकर दलित थे इसलिए.....?
 अब सवाल यह उठता है- “जिस देश में एकलव्य का अगूंठा गुरूदक्षिणा में मांगने वाले के नाम पर पुरस्कार दिए जाते हो, जिस देश में शम्बूक जैसे शूद्र तपस्वी के वध की परम्परा हो, जिस देश में शुद्रों-अतिशुद्रों और स्त्रियों को शिक्षा ग्रहण करने पर धर्मग्रंथों में उनके कान में गर्म सीसा डालने का फरमान जारी किया गया हो और जिस देश के तथाकथित ब्राह्मणवादी समाज के कवि द्वारा ‘ढोल गंवार शुद्र पशु नारी’ को ताड़न का अधिकारी माना गया हो’ ऐसे देश में किसी शूद्र समाज की स्त्री द्वारा सम्पूर्ण स्त्री व दलित समाज के लिए शिक्षा की क्रांति ज्योति जला देना अपने आप में किसी आश्चर्य से काम नहीं था। परंतु अफ़सोस तो यह कि ‘जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान’ वाले देश जाति के आधार पर ही ज्ञान की पूछ होती है। यदि ऐसा नहीं है तो फिर भारत में आज भी ‘शिक्षक दिवस’ क्रांतिज्योति सावित्रीबाई फूले के नाम पर न होकर सर्वपल्ली राधाकृष्णन के नाम से मनाया जाता है...? क्या सावित्रीबाई फूले का शिक्षा के क्षेत्र में योगदान कम महत्वपूर्ण है...?”[14]
भारत अलग-अलग धर्म, परम्पराओं, मान्यताओं, सामाजिक रीति-रिवाजों का देश है। इन विभिन्नताओं के बावजूद अधिकांश में एक बात अवश्य होती है, और वह है नारी का अपमान और उसकी परतंत्रता। जब कभी कोई स्त्री इन दकियानूसी विचारों, कर्मों से उबरना चाहती है, तो उसे धर्म तथा समाज की परम्पराओं और रीति-रिवाजों का हवाला देकर दबा दिया जाता है।
सवाल यह है ऐसा कब तक चलेगा.....? स्त्री को पूर्ण स्वतंत्रता और सम्मान कब प्राप्त होगी....? उसे सम्मान के साथ कब बुलाया जायेगा....? केवल नारी ही पुरूष के कुशल-मंगल व लंबी उम्र का व्रत कब तक करेगी....?
सबसे पहले नारी उद्धार की शुरूआत तथागत गौतम बुद्ध से होती है। उसके बाद नारी उद्धार के महान कार्य को बड़े पैमाने पर राष्ट्रपिता ज्योतिबाराव फूले और क्रांतिज्योति माता सावित्रीबाई फूले ने किया। इन्हीं दोनों महान विभूतियों ने नारी शिक्षा के आंदोलन को जीवन भर आंदोलित किया। आधुनिक भारत में माता सावित्रीबाई फूले ही इस देश की पहली ‘महिला शिक्षिका’ हुई। इसके बावजूद हिंदू धर्म की निष्ठुरता और दुश्चरित्रता ने इस देश की नारी को इस कदर नीच, अपवित्र, अबला, विवश और असहाय बना दिया था कि नारी जीवन में सुख और सम्मान की कल्पना भी नहीं की सकती थी। परंतु भारतरत्न बाबासाहब डॉ.बी.आर.अम्बेडकर ने नारी समाज के सुख-सम्मान की केवल कल्पना नहीं की बल्कि उन्हें वे सारे अधिकार मुहैया करा दिए जिनके द्वारा नारी सुख-सम्मान के साथ स्वतंत्रता और समानता का जीवन जी सकती हैं।
सावित्रीबाई फुले ने जितना जोर महिला-शिक्षा पर दिया...? वैसा किसी ने दिया हैइसलिए मेरा मानना है कि वर्तमान समय में महिला संगठनों के सामने एक खास चुनौती हैक्या हम उनके जन्मदिन 3 जनवरी को “शिक्षिका-दिवस” के रूप में 21वीं सदी में मना पाएंगे.....?
आज समाज का ऐसा कोई भी कार्य क्षेत्र नहीं है, जहाँ महिलाओं की भागीदारी न हो। वह पुरूषों के साथ कंधे से कंधा मिलकर चल रही हैं। सरपंच, अध्यापिका, प्रशासनिक अधिकारी, प्रोफेसर, मुख्यमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष, नेता प्रतिपक्ष से लेकर राष्ट्रपति के सर्वोच्च पद पर भी हमारे देश की महिलाएं विराजमान हुई हैं। यह सब बाबासाहब द्वारा निर्मित संविधान का ही परिणाम है, अन्यथा इस देश की ब्राह्मण व्यवस्था ने तो महिलाओं को वस्तु और गुलाम के तौर पर रखा था।
अब सवाल फिर यह खड़ा होता है स्त्री मुक्ति के लिए आखिर जरूरत किसकी है....? सावित्रीबाई फूले या सरस्वती की......! इसका जवाब आप सभी पर ही छोड़ता हूँ।

आइये आधुनिक भारत की शैक्षिक बराबरी में क्रांतिज्योति माता सावित्रीबाई फूले के योगदान को ऐतिहासिक महत्व से सम्मानित करें......! और 3 जनवरी को शिक्षिका-दिवसके रूप में पूरे देश में मिलकर मनाएं.......।
संदर्भ सूची




[1] माली, एम. जी. (2005) : क्रांतिज्योति सावित्रीबाई फूले, पृष्ट संख्या-17, प्रकाशन विभाग, सूचना और प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार, सूचना भवन, सी.जी.ओ. काम्प्लेक्स लोदी रोड,  नई दिल्ली-110003  

[2] रंजन, प्रमोद : फॉरवर्ड प्रेस, मई अंक-2013, पृष्ट संख्या-46, 803 दीपाली, 92 नेहरू प्लेस, नई दिल्ली-110019  
[3] वही, पृष्ट संख्या-47
[4] सागर, एस. एल. (1998) : भारत की संतप्त नारी, पृष्ठ संख्या-218, सागर प्रकाशन, 223 दरीबा, मैनपुरी (उ.प्र.)

[5] शाह, के. आर. : आदिवासी सत्ता, जनवरी अंक-2013, पृष्ठ संख्या-5, क्वा.नं. 2/एच, सड़क नं.-रेलवे एवेन्यू, सेक्टर-6, भिलाई नगर, जिला-दुर्ग (छत्तीसगढ़)-490006
[6] सागर, एस. एल. (2003) : हिन्दुओं के व्रत पर्व और त्यौहार, पृष्ठ संख्या-237, सागर प्रकाशन, 223 दरीबा, मैनपुरी (उ.प्र.)

[7] आर्य, साधना, मेनन, निवेदिता, लोकनीता, जिनी (2010) : नारीवादी राजनीति : संघर्ष एवं मुद्दें, पृष्ट संख्या-142, हिंदी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, 10, केवेलरी लाइन, दिल्ली-110007

[8]शांति स्वरूप बौद्ध (2010) : सावित्रीबाई फूले सचित्र जीवनी, पृष्ट संख्या-48, सम्यक प्रकाशन, 32/3, क्लब रोड, पश्चिमपुरी, नई दिल्ली-110063
[9] रंजन, प्रमोद : फॉरवर्ड प्रेस, दिसम्बर अंक-2013, पृष्ठ संख्या-14, 803 दीपाली, 92 नेहरू प्लेस, नई दिल्ली-110019

[10] वही, पृष्ट संख्या-37
[11] वही, पृष्ट संख्या-51
[12] बौद्ध, रोशन (2013) : सुहाग बनाम सिंदूर, पृष्ठ संख्या-62, सम्यक प्रकाशन, 32/3, क्लब रोड, पश्चिमपुरी, नई दिल्ली-110063
[13] रंजन, प्रमोद : फॉरवर्ड प्रेस, दिसम्बर अंक-2013, पृष्ठ संख्या-20, 803 दीपाली, 92 नेहरू प्लेस, नई दिल्ली-110019

[14] रंजन, प्रमोद : फॉरवर्ड प्रेस, जनवरी अंक-2014, पृष्ठ संख्या-10, 803 दीपाली, 92 नेहरू प्लेस, नई दिल्ली-110019




रजनीश कुमार अम्बेडकर
शोध छात्र, बाबासाहब डॉ. अम्बेडकर दलित एवं आदिवासी अध्ययन केंद्र
महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा (महाराष्ट्र)-440001

Email: rajneesh228@gmail.com
 Mob.09423518660/08421966265

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